महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति का एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

 

बी. एल. सोनेकर

सहायक प्राध्यापक, अर्थशास्त्र अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्लविश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़

 

सारांश

निःसंदेह महिला अस्वस्थ होती है, तो इसका दुष्प्रभाव उसके संतान एवं परिवार पर पड़ता है। महिला अस्वस्थता अक्सर गरीबी, अज्ञानता, जागरूकता का अभाव और चिकित्सकीय सुविधा के अभाव में होता है। चूँकि महिला को ही समाज तथा परिवार का आधार कहा जाता है, यदि महिलाएँ ही अस्वस्थ है, तो एक उज्जवल और निरोगी समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। अतः महिला विकास हेतु यह एक अनिवार्य घटक है।

 

 

 

अध्ययन का महत्व

स्वास्थ्य मानव विकास सूचकांक का एक महत्वपूर्ण सूचक है। आजादी के बाद से ही सरकार के समक्ष महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार एक महत्वपूर्ण चुनौती रहा है। विशेषकर ग्रामीण महिलाओं की जहाँ आज की उचित चिकित्सा का अभाव पाया जाता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 48.4 प्रतिशत जनसंख्या महिलाएँ हैं, जिसमें अधिकतर महिलाओं की मृत्यु चिकित्सा के अभाव के कारण होती है। चाहे वह प्रसव के दौरान हो, एच.आई.वी. से संबंधित हो या एनिमिया से ग्रसित हो। यह सच है कि विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। यही कारण है कि जहाँ वर्ष 1947 में जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी, वह बढ़कर 66 वर्ष पहुॅच चुकी है; लेकिन यह भी सच है आज इस समय स्वास्थ्य पर 1.4 प्रतिशत व्यय किया जा रहा है, जबकि बारहवीं पंचवर्षीय योजना में इस व्यय को 2.5 प्रतिशत करने का प्रावधान है, फिर भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापदण्डों से काफी पिछड़े है। यह दुर्भाग्य है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर कुल सरकारी व्यय ळक्च् के 1 प्रतिशत से भी कम है और इसे 2 या 3 प्रतिशत तक बढ़ाने की आवश्यकता है।

 

आज इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि स्वास्थ सुविधाओं का विस्तार किस प्रकार किया जाए? जबकि वित्तीय संसाधन बाधा नहीं है, बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि महिलाओं को स्वास्थ्य के प्रति समाज में जागरूकता लाना होगा। साथ ही विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध करना होगा, ताकि महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति में सुधार हो सके और वह स्वस्थ समाज और देश के निर्माण में सहयोगी बन सके। किसी भी देश के आर्थिक विकास में भौतिक पूँजी के साथ-साथ मानवीय पूँजी का भी विशेष स्थान होता है।

 

अध्ययन के उद्देश्य

भारत एवं छत्तीसगढ़ की महिलाओं की लिंगानुपात, जन्मदर एवं मृत्युदर का अध्ययन करना।

 

शोध पद्धति

प्रस्तुत शोध मुख्य रूप से द्वितीयक आंकड़ों पर आधारित है। अध्ययन हेतु आंकड़ों का संग्रहण स्वास्थ्य विभाग मंत्रालय एवं राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से किया गया है। अध्ययन में शामिल उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्रतिशत विधि का प्रयोग किया गया है।

 

अध्ययन का विश्लेषण

. लिंगानुपात (महिला/हजार पुरुष में)

लिंगानुपात महिलाओं एवं पुरुषों के पारस्परिक अनुपात को प्रदर्शित करता है। सन 2011 के जनगणना के अंतिम आंकड़ों के अनुसार राज्य में प्रति हजार पुरुषों पर 991 महिलाएँ है, जबकि 2001 की जनगणना से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार प्रति एक हजार पुरुषों पर 989 महिलाएँ थी। सन 2001 की तुलना में राज्य के लिगांनुपात में वृद्धि हुई है, जो एक अच्छा संकेत है।

 

राज्य में 1901 में प्रति हजार पुरुषों पर 1046 महिलाएँ थी। सन 1931 के बाद राज्य लिंगानुपात में 1991 तक निरंतर कमी की प्रवृति रही। लिंगानुपात में यह कमी मुख्यतः अधिक प्रजननता एवं स्त्रियों की अधिक मृत्यु दर का परिणाम है। लड़कों की अधिमान्यता एवं लड़कियों की उपेक्षा, लड़के-लड़की के स्वास्थ्य स्तर में भिन्नता, लिंग सापेक्ष मृत्यु, निर्धनता, शिशु मृत्यु दर, दहेज प्रथा, बाल विवाह एवं पर्दा प्रथा एवं लिंग निर्धारण परीक्षण के कारण लिगांनुपात में यह विषमता  आई, लेकिन वर्तमान में परिस्थितियाँ बदल रही है और उसी का परिणाम है कि सन 2001 की तुलना में 2011 में लिंगानुपात में वृद्धि दर्ज की गई है।

 

. जन्मदर (प्रति हजार जनसंख्या में)

जन्म दर में आई थोड़ी कमी का कारण शिक्षा प्रसार के साथ ही साथ उपर्युक्त सभी कारण भी जिम्मेदार है। छत्तीसगढ़ राज्य में जन्म दर में थोड़ी गिरावट जरूर आई है, किन्तु अब भी यहाँ पर जन्म दर उच्च बना ही हुआ है। छत्तीसगढ़ में उच्च जन्मदर के कुछ कारक निम्न है- विवाह की व्यापकता, बाल विवाह, धार्मिक और सामाजिक अंधविश्वास, संयुक्त परिवार प्रथा, निर्धनता, कृषि पर निर्भरता, ग्रामों की प्रधानता, प्रति व्यक्ति आय में प्रारंभिक वृद्धि, जलवायु की ऊष्णता, शिक्षा का अभाव, संतान निरोधक की कमी, अविवेकपूर्ण मातृत्व, मनोरंजन के साधनों का अभाव और बच्चों के जन्म में अंतर का अभाव। इस प्रकार विभिन्न कारणों से छत्तीसगढ़ राज्य में जन्म दर ऊँची है। जन्म दर का शिक्षा स्तर एवं आर्थिक स्तर से संबंध है। यदि लोगों में शिक्षा स्तर एवं आर्थिक स्तर उच्च होगा तो जन्म दर पर नियंत्रण किया जा सकता है। उच्च शिक्षा स्तर की सहायता से लोागों में परिवार नियोजन हेतु जागरूकता लाकर परिवार को सीमित किया जा सकता है, जिससे कि जनसंख्या नियंत्रित हो जायेगी।

 

. मृत्यु दर (प्रति हजार जन्मदर पर)

भारत एवं छत्तीसगढ़ राज्य के मृत्यु दर में कमी आई है लेकिन यह दर अभी बहुत कम है। प्रसूति के ऊँची मृत्यु दर के पीछे मुख्य कारण अनियमित प्रजनन, प्रसव पूर्व आवश्यक देखभाल न हो पाना, बाल विवाह, निरक्षरता, कुपोषण निर्धनता और प्रशिक्षित हाथों में प्रसव का न होना है। ये सारी प्रसूति की मृत्यु के प्रत्यक्ष कारण है। अप्रत्यक्ष कारणों में महिलाओं का समाज में निम्न दर्जा और वे सामाजिक-सांस्कृतिक रीति-रिवाज और अंधविश्वास है, जो महिलाओं के साथ भेदभाव करते है। प्रसूति मृत्यु का एक कारण गर्भपात भी है।

 

भारत के गाँवों में माताओं की मृत्यु-दर दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। इसका एक मुख्य कारण गर्भकाल में डाॅक्टर को दिखाकर आवश्यक पोषक व चिकित्सा नहीं लेना है। माना जाता है कि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिसके पास डाॅक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है। राष्ट्रीय आंकड़े बताते है कि पूर्ववती गर्भावस्था के दौरान कठिनाइयाँ आने के बावजूद आमतौर पर उनका इलाज घरेलू नुस्खों द्वारा किया जाता है। गर्भवती महिला के चिकित्सक के पास न जाने के मुख्यतः तीन कारण है - पहला इनका फैसला सास-ससुर या पति द्वारा किया जाता है। दूसरा पैसे का न होना और तीसरा आम तौर पर लोगों में डर रहता है कि कहीं इलाज से बच्चे को फायदा होने के बजाय नुकसान न हो जाये।

 

मृत्यु के कारण

. खून की कमी (एनिमिया या रक्ताल्पता)

एनिमिया आवश्यक तत्वों की कमी से होने वाला महिलाओं का एक बहुत ही सामान्य रोग है। यह मुख्यतया शरीर में लौह तत्वों व फोलिक एसिड की कमी से होता है। लौह तत्व ही जरूरत हिमोग्लोबीन के निर्माण के लिए होती है, जो शरीर में आॅक्सीजन को रक्त में ले जाता है। वास्तव में महिलाओं को, पुरुषों की तुलना में ज्यादा लौह-तत्व की आवश्यता

होती है।

 

समाज के तीन सर्वाधिक सुग्राही वर्गाे, यथा- शिशु, गर्भवती महिलाएँ एवं वृद्धों में से रक्ताल्पता के प्रति सर्वाधिक संवेदी गर्भवती महिलाएँ होती है। भारत सहित संपूर्ण विश्व में गर्भावस्था में रक्ताल्पता मातृ रूग्णता, मत्र्यता एवं प्रजनन - अपव्यय के प्रमुख कारणों में से एक है। हालांकि पूरे भारत में अलग-अलग क्षेत्रों एवं समुदायों में अलग-अलग दर्शाती है। प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य छत्तीसगढ़ में महिलाओं में रक्ताल्पता की गंभीरता का पता लगाना है। विश्व के लगभग समस्त विकासशील देशों में गर्भास्वथा में रक्ताल्पता मातृ-जटिलताओं, रूग्णता एवं नवजात शिशु मृत्यु-दर के प्रमुख कारण के रूप में उभर रही है।

 

. कम वजन के नवजात शिशु

किसी क्षेत्र विशेष या समुह विशेष में जन्म के समय बच्चों का औसत वजन उस क्षेत्र में समूह के लोगों के स्वास्थ्य व तंदुरूस्ती का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। नवजात बच्चों के वजन का सीधा संबंध उनकी माँ के स्वास्थ्य व पोषणिकता से होता है। स्वस्थ माँ, स्वस्थ बच्चे को जन्म देती है। भारत में सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग समूह में नवजात बच्चे का औसत वजन 3.5 किलोग्राम होता है। यह विकसित देशों में नवजात बच्चे के औसत वजन के बराबर ही है। पर यहाँ कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग समूह में नवजात बच्चे का औसत वजन 2.7 किलोग्राम है। 2.5 किलोग्राम से कम वजन होने पर बच्चे को कमजोर माना जाता है, जिसके बीमार होने या मृत्यु हो जाने का खतरा ज्यादा रहता है। भारत में पैदा होने वाले कुल बच्चों का एक तिहाई कम वजन वाले होते है।

 

सुझाव

. मृत्युदर कम करने के सुझाव

जैसा कि हम अध्ययन कर चुके है कि भारत वर्ष में एवं छत्तीसगढ़ राज्य में मृत्यु दर अपेक्षाकृत अधिक है, अतः आवश्यकता इस बात की है कि इसमें कमी लायी जाये। विश्व के विकसित देशों में मृत्यु दर में जो कमी आयी है, उसके लिए कई कारण उत्तरदायी है, 

जैसे-

ऽ  सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्तर में सुधार ।

ऽ  बिमारियों पर प्रभावशील नियंत्रण का होना।

ऽ  चिकित्सा सुविधाओं में विस्तार होना।

ऽ  संतुलित आहार

ऽ  यातायात के साधनों में सुधार

ऽ  समाज की सामाजिक व आर्थिक उन्नति।

ऽ  छूत की बीमारियों पर तत्काल नियंत्रण करना।

ऽ  शिक्षा, आवास, चिकित्सा सुविधाओं को उपलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिए।

ऽ  संतुलित आहार की व्यवस्था की जानी चाहिए व पीने के स्वस्छ पानी का प्रबंध किया जाना चाहिए।

 

. शिशु मृत्यु दर में कमी हेतु सुझाव

ऽ  अज्ञानता, अशिक्षा, रूढ़िवादिता को समाप्त किया जाये, क्योंकि ये सभी समस्याओं की जड़ है।

ऽ  पर्दा प्रथा का उन्मूलन किया जाये और भारतीय स्त्रियों की समय-समय पर स्वास्थ्य परीक्षा की जाये। इस परीक्षा में जो बीमारियाँ पाई जाये, उनके निदान का प्रयास किया जाये।

ऽ  बाल विवाह की प्रथा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाये। इससे छोटी आयु में विवाह नहीं होंगे। छोटी आयु में विवाह न होने से स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ेगा। इससे मृत्यु दर में कमी आयेगी।

ऽ  लड़कियों की मातृत्व सुरक्षा तथा शिशु पालन के नियमों की जानकारी प्रदान की जाये और इससे संबंधित ज्ञान को सर्वसुलभ बनाया जाये।

ऽ  यौन शिक्षा को प्रोत्साहन किया जाये। इसके साथ ही लड़कियों को बाल मनोविज्ञान, दाम्पत्य जीवन और स्वास्थ्य सुरक्षा संबंधी सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए, इससे भी माताओं और शिशु की मृत्यु में कमी आएगी।

ऽ  जीवन स्तर में सुधार किया जाये। इससे स्वास्थ्य और पोषण की दशाओं में सुधार होगा। परिणामस्वरूप मातृ-शिशु मृत्यु दर में कमी आएगी।

ऽ  माताओं एवं शिशु के कल्याण से संबंधित योजनाओं और संस्थाओं को विकसित किया जाये।

ऽ  परिवार नियोजन को प्रोत्साहित किया जाए।

ऽ  समाज में महिलाओं के प्रति जो उदासीनता और उपेक्षात्मक दृष्टिकोण है, उसे समाप्त किया जाये। इससे भी शिशु मृत्यु दर में कमी आयेगी।

 

. अन्य सुझाव

ऽ  मितानिनों की अधिक से अधिक प्रशिक्षित करना, ताकि वे महिला एवं बाल स्वास्थ्य में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके।

ऽ  गर्भकाल के दौरान अधिक पौष्टिक एवं संतुलित आहार के महत्व को समझाना, ताकि गर्भस्थ शिशु स्वस्थ हो।

ऽ  पिछड़े हुए ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं का कुशल विस्तार करना, जिससे पिछड़े इलाकों में भी व्यक्तियों की पहुँच चिकित्सा सुविघा तक हो सके।

ऽ  चिकित्सकों एवं अन्य स्वास्थ्य कर्मियों में सेवा-भाव जागृत करना, ताकि वे अपनी सेवाएँ पिछड़े हुए क्षेत्रों में भी दे।

ऽ  चल चिकित्सा सुविधाओं का अधिक से अधिक विस्तार करना।

ऽ  छत्तीसगढ़ सरकार को प्रशासनिक प्रयासों को और अधिक तीव्र करने हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में कैम्प, शिविर एवं महिलाओं हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।

ऽ  प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों, उप-स्वास्थ्य केन्द्रों एवं अन्य स्वास्थ्य संस्थानों के संचालन पर प्रशासन द्वारा निरीक्षण एवं नियंत्रण रखना चाहिए।

ऽ  महिला स्वास्थ्य हेतु मुफ्त स्वास्थ्य सलाह की सुविधा होने चाहिए।

 

संदर्भ:

1.      स्वास्थ्य विभाग, मंत्रालय, रायपुर छत्तीसगढ़ वार्षिक प्रतिवेदन 2013

2.  भारत की जनगणना 2013

 

Received on 10.05.2014       Modified on 10.06.2014

Accepted on 18.06.2014      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 2(2): April-June 2014; Page 124-127